सरगुजा। छत्तीसगढ़ के प्रातापपुर विधानसभा क्षेत्र की विधायक श्रीमती शकुंतला सिंह पोर्ते का जाति प्रमाणपत्र विवाद इन दिनों पूरे सरगुजा संभाग में चर्चा का विषय बना हुआ है। समाज के एक वर्ग ने आरोप लगाया है कि विधायक ने फर्जी और कूटरचित दस्तावेजों के आधार पर अनुसूचित जनजाति का प्रमाणपत्र प्राप्त किया है। अब यह मुद्दा न केवल राजनीतिक हलकों में बल्कि आदिवासी समुदायों के बीच भी आक्रोश का कारण बन गया है।


प्राप्त जानकारी के अनुसार, विधायक शकुंतला सिंह पोर्ते का जाति प्रमाणपत्र उनके पिता या पारिवारिक दस्तावेजों के आधार पर जारी नहीं किया गया था। आरोप है कि बिना किसी वैधानिक आधार के प्रमाणपत्र जारी कर दिया गया। शिकायतकर्ताओं का कहना है कि न तो विधायक और न ही उनके पति ने मूल जातीय दस्तावेज प्रस्तुत किए, फिर भी उन्हें अनुसूचित जनजाति वर्ग का प्रमाणपत्र दे दिया गया।


मामले की शिकायत के बाद प्रशासनिक स्तर पर जांच प्रारंभ की गई। जांच में पाया गया कि प्रमाणपत्र जारी करने के समय किसी वैध दस्तावेज का अभाव था। अम्बिकापुर के अनुविभागीय अधिकारी और परियोजना कार्यालय दोनों ने ही यह स्पष्ट किया कि प्रमाणपत्र से संबंधित आवश्यक अभिलेख रिकॉर्ड में उपलब्ध नहीं हैं।


इस प्रकरण को लेकर आदिवासी समाज ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय, बिलासपुर में याचिका दायर की थी। हाईकोर्ट ने 17 जून 2025 को आदेश जारी करते हुए जिला और राज्य स्तरीय जाति सत्यापन समिति को जांच और आवश्यक कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे। लेकिन चार महीने बीत जाने के बावजूद अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है, जिससे आदिवासी समाज में गहरा असंतोष व्याप्त है।


जिला स्तरीय जाति सत्यापन समिति ने 28 अगस्त, 15 सितंबर और 29 सितंबर 2025 को विधायक को दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए नोटिस जारी किए थे। समिति की सुनवाई में विधायक की अनुपस्थिति दर्ज की गई, जिसके बाद समाज के प्रतिनिधियों ने इसे जांच प्रक्रिया से बचने का प्रयास बताया है।


आदिवासी समुदाय का आरोप है कि कथित रूप से गलत जाति प्रमाणपत्र के आधार पर अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट से चुनाव लड़ना सच्चे आदिवासियों के अधिकारों का खुला उल्लंघन है। समाज का कहना है कि यह राजनीतिक छल और संवैधानिक व्यवस्था के साथ खिलवाड़ है, जिसने पूरे समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है।


आदिवासी समाज ने प्रशासन को 7 दिनों की अंतिम चेतावनी दी है। उनका कहना है कि यदि इस अवधि में जाति प्रमाणपत्र निरस्त नहीं किया गया, तो वे अनिश्चितकालीन आंदोलन की शुरुआत करेंगे। समाज ने साफ कहा है कि यदि आंदोलन के दौरान कोई अप्रिय स्थिति बनती है, तो उसकी पूरी जिम्मेदारी प्रशासन की होगी।


इस मुद्दे ने स्थानीय राजनीति में भी तापमान बढ़ा दिया है। क्षेत्रीय संगठनों और समाजिक नेताओं का कहना है कि यह मामला केवल एक व्यक्ति के प्रमाणपत्र का नहीं, बल्कि आदिवासी अस्मिता और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का प्रश्न है। वहीं, विधायक पक्ष की ओर से अब तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है।


अब सबकी निगाहें जिला प्रशासन और सत्यापन समिति की आगे की कार्यवाही पर टिकी हैं। यदि प्रमाणपत्र निरस्त होता है, तो मामला विधायक की विधानसभा सदस्यता तक जा सकता है। वहीं, यदि प्रमाणपत्र को वैध माना गया, तो विरोधी पक्ष इसे लेकर कानूनी लड़ाई के अगले चरण में जाने की तैयारी कर रहा है।