किताबों की जगह कटोरा—बाल संरक्षण तंत्र की खुली पोल
वर्षों से जमे अधिकारियों पर उठे सवाल—बाल संरक्षण व्यवस्था पंगु
- हमर उत्थान सेवा समिति की कड़ी आपत्ति, उच्च स्तरीय जांच की मांग
बाल संरक्षण कार्यालय के बावजूद जिले में नहीं रुक रही भिक्षावृत्ति
- माता-पिता की मजबूरी और सिस्टम की विफलता ने बच्चों को सड़कों पर धकेला
सूरजपुर। देशभर की तरह सूरजपुर जिले में भी प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन, 14 नवंबर को बाल दिवस उत्साह के साथ मनाया गया। स्कूलों में रंगारंग कार्यक्रम हुए, बच्चों के अधिकारों, शिक्षा और सुरक्षित भविष्य की बातें कहीं गईं। परंतु इसी जश्न के बीच जिले की सड़कों पर एक कड़वी सच्चाई बार-बार आंखों में चुभती रही—नन्हे हाथों में किताब नहीं, कटोरा था।
जिला मुख्यालय के चौक-चौराहों पर कम उम्र के बच्चे फटे पुराने कपड़ों में भीख मांगते नजर आए। यह दृश्य तब और अधिक पीड़ादायक हो जाता है जब याद आता है कि यही सूरजपुर प्रदेश के महिला एवं बाल विकास मंत्री का गृह जिला है। यहीं पर बाल संरक्षण अधिकारी का कार्यालय भी है, जहां छह कर्मचारी तैनात हैं। वहीं वातानुकूलित जिला कार्यक्रम अधिकारी कार्यालय भी मौजूद है, लेकिन इन कार्यालयों के बाहर खड़े ये मासूम इन योजनाओं से कोसों दूर हैं।
बीते दो दिनों में हमारी टीम ने शहर के कई स्थानों पर ऐसे दर्जनों बच्चों से बातचीत की। अधिकांश बच्चों ने भावुक होते हुए बताया कि माता-पिता उन्हें इसी कार्य में लगा देते हैं। “100–200 रुपये मिल जाते हैं, उसी से घर चल जाता है,”—एक दस साल के बच्चे ने कहा। कई बच्चों ने बताया कि उनका स्कूल में दाखिला ही नहीं हुआ, जबकि कुछ ने कहा कि सरकारी स्कूल में पढ़ाई नहीं होती, किताब-कॉपियों के पैसे नहीं हैं, काम करने जाते हैं तो उम्र देखकर लौटा दिया जाता है। मजबूरी में वही रास्ता बचता है—भीख मांगकर पेट पालना।
तफ्तीश में यह भी सामने आया कि इनमें से अधिकतर बच्चे भैयाथान विकासखंड के ग्राम समोली के बसोर समुदाय से आते हैं, जो कभी बांस कारीगरी से जीवनयापन करते थे। प्लास्टिक और फाइबर उत्पादों ने उनका रोजगार छीन लिया और मेहनताना इतना कम हो गया कि कारीगरी टिक नहीं पाई। सरकारी योजनाएँ न पहुँचने, रोजगार के अभाव और सामाजिक उपेक्षा ने इन परिवारों को भिक्षावृत्ति की ओर धकेल दिया।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि करोड़ों के बजट वाली बाल संरक्षण सेवाओं की वास्तविक स्थिति क्या है? जिलों को ICPS योजना के तहत बच्चों की सुरक्षा, पहचान, रेस्क्यू, पुनर्वास और जागरूकता कार्यक्रमों के लिए हर वर्ष भारी बजट मिलता है। सूरजपुर में भी यह बजट मिलता है, पर रेस्क्यू अभियान, जेजे एक्ट के तहत कार्रवाई, अभिभावकों या तस्करों पर एफआईआर इन सबकी जमीन पर मौजूदगी बेहद कमजोर है। वर्षों से एक ही पद पर जमे अधिकारी, राजनीतिक संरक्षण और कागजी कार्रवाई ने बाल संरक्षण की पूरी व्यवस्था को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है।
यह तथ्य भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि कुछ वर्ष पूर्व प्रेमनगर विकासखंड के धनुहार जनजाति के नाबालिग बच्चों को तस्करी से बचाने की कार्रवाई में तस्करों पर एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई। आज भी वे सफेद कॉलर में घूमते दिखाई देते हैं और बच्चों को नौकरी व मोटी रकम का झांसा देकर दूसरे प्रदेश भेजने की कोशिशें जारी रखते हैं।
इस पूरे मामले पर हमर उत्थान सेवा समिति के अध्यक्ष चंद्र प्रकाश साहू ने कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि बाल दिवस तभी सार्थक है जब सड़क पर भटकते हर बच्चे को सुरक्षा, शिक्षा और सम्मान मिले। उन्होंने जिला प्रशासन से तत्काल रेस्क्यू अभियान चलाने, जेजे एक्ट के तहत अपराधियों पर एफआईआर दर्ज करने, बाल संरक्षण अधिकारी की कार्यप्रणाली की उच्च-स्तरीय जांच कराने और वर्षों से जमे अधिकारियों के स्थानांतरण की मांग की है। उन्होंने कहा कि जिले में बच्चों के भविष्य से जुड़े सवाल केवल रिपोर्टों और कागज़ों में नहीं, बल्कि सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं।
बच्चों के अधिकारों की रक्षा और सुरक्षित भविष्य का संकल्प कागज़ों पर नहीं, धरातल पर उतरना चाहिए—वरना बाल दिवस के कार्यक्रमों की चमक के पीछे सिमटी यह सच्चाई हमें बार-बार झकझोरती रहेगी।